
मौसम परिवर्तन के साथ हमारे शरीर में भी अनेको परिवर्तन होते हैं. कई बार मौसम का सुहाना परिवर्तन भी स्वास्थ्य के लिए समस्या बन सकता है. ऐसे में जरूरत होती है सही उपचार कि जो आपको रोग मुक्त तो करें ही, साथ ही शरीर पर कोई नकारात्मक प्रभाव भी न डालें. आयुर्वेद के अतिरिक्त यह खूबियां सिर्फ होम्योपैथिक उपचारों में ही होती है.
हमारे भारत वर्ष पर प्रकृति की सदस्य कृपया रही है. यहां विशेषकर छः मुख्य ऋतुएं होती है जो बारी-बारी पृथ्वी का सौंदर्यकरण करती रहती है. उन्हीं ऋतुओं की रानी है वर्षा ऋतु. ग्रीष्म ऋतु के बाद वर्षा ऋतु के आगमन से जन वन प्रफुल्लित हो उठता है. तीव्र गर्मी के बाद बारिश की फुहारें मन को आनंदित कर देती है. पर इस मौसम में अनेकों बीमारियों का भी आक्रमण होता है. सड़कों पर घर के आसपास बारिश का पानी जमा होने से मच्छर और अन्य रोगाणुओं के पनपने का खतरा बढ़ जाता है. ऐसे में डेंगू, मलेरिया, वायरल बुखार, हैजा, उल्टी, पेचिश, अतिसार, टाइफाइड आदि बीमारियों की आशंका में भी वृद्धि हो जाती है.
बरसात के मौसम में चर्म रोग होना भी आम होता है. इस मौसम में धूल भरी हवाएं चलने के कारण दमा, सर्दी जुकाम, खांसी, एलर्जिक राइनाईटिस से कई लोग पीड़ित हो जाते हैं.
मौसम में उमस और नमी के कारण उत्पन्न व्याधियों से आमतौर पर मानव पीड़ित रहता है. मनमोहक मौसम में इन बीमारियों का प्रकोप बढ़ना आपके आनंद में बाधा डाल सकता है. ऐसे में जरूरत है किसी ऐसे उपचार की जिसका शरीर पर कोई नकारात्मक प्रभाव न पड़े. वर्षा ऋतु की व्याधियों से राहत के लिए अपनाएं होम्योपैथी. यह एक चिकित्सा प्रणाली है जो शरीर पर बिना कोई विपरीत प्रभाव डालें समस्त व्याधियों को दूर कर देती है.
जुकाम खांसी
मौसम के बदलते ही बच्चों को सर्दी जुकाम होना आम बात है. मौसम में ठंडक होने के कारण वातावरण में मौजूद वायरस अधिक सक्रिय हो जाते हैं. राइनों और इन्फ्लूएंजा वायरस इसके मुख्य कारक होते हैं. यह सांस के माध्यम से शरीर में प्रवेश करते हैं और बीमारियां पैदा करते हैं.
इस रोग से अधिकांश बच्चे प्रभावित होते हैं क्योंकि उनकी रोग प्रतिरोधक क्षमता व्यस्कों की तुलना में कमजोर होती है. कम समय के अंतराल पर ही ठंडे व गर्म पदार्थों के सेवन से भी सर्दी जुकाम की विकृति होती है. सर्दी जुकाम होने पर नाक बहना, आंखो से पानी आना, गले में खराश, सिर दर्द, बुखार जैसे लक्षण देखने को मिलते हैं.
उपचार : ब्रायोनिया, इपिकाक एल्ब, आर्सेनिक, रसटॉक्स, बेलाडोना, बायो नं. 6.
हैजा
बारिश के मौसम में एकत्रित पानी, गंदगी में पनपने वाले बैक्टीरिया के संक्रमण से हैजा रोग की उत्पत्ति होती है. ये बैक्टीरिया मक्खियों द्वारा खाद्य व पेय पदार्थों पर छोड़े जाते हैं. किसी भी स्वस्थ व्यक्ति द्वारा उन पदार्थों को ग्रहण करने पर यह उसके शरीर में पहुंच जाते हैं. इसी से व्यक्ति हैजा से संक्रमित हो जाता है.
हैजा एक प्रकार का बैक्टीरिया जनित रोग है जो ‘वाइब्रियो कॉलेरी’ नामक बैक्टीरिया से फैलता है. अस्वच्छ स्थानों पर इस रोग के बैक्टीरिया के पनपने का ज्यादा खतरा रहता है. हैजा से पीड़ित रोगी उल्टी, दस्त, शरीर में जल की कमी हो जाना, तापमान की अनियमितता, मूत्र त्याग में समस्या, बदन दर्द व कमजोरी के लक्षण दर्शाता है.
उपचार : कैम्फर क्यू, आर्सेनिक एल्ब, पोड़ोफाइलम, बैरेथ्रम एल्ब, क्युप्रम मेट, कुर्ची क्यू, चपारो क्यू.
मलेरिया
विश्व स्वास्थ्य संगठन की 2013 की रिपोर्ट के अनुसार विश्व में लगभग 19 करोड़ से ज्यादा लोग मलेरिया का शिकार बनते हैं जिनमें 80 प्रतिशत 5 साल से कम उम्र के बच्चे थे. मलेरिया एक ऐसा संक्रामक रोग है जिसकी गिरफ्त में व्यस्को से अधिक बच्चे आते हैं. यह लोग मादा ऐनोफिलीज मच्छर में पाए जाने वाले एक परजीवी रोगाणु ‘प्लास्मोडियम’ के शरीर में प्रवेश करने से होता है.
मच्छर के काटने से परजीवी की लार मनुष्य के रक्त को संक्रमित कर देती है और व्यक्ति मलेरिया से पीड़ित हो जाता है. मलेरिया रोग के लक्षण संक्रमित मच्छर के काटने के 10-12 दिनों के बाद प्रकट होते हैं. प्रारंभ में रोगी को अधिक ठंड लगती है और धीरे-धीरे पूरे शरीर की मांसपेशियों में उसे दर्द व अकड़न महसूस होने लगती हैं.
इसके साथ ही यह रोगी के पाचन तंत्र को प्रभावित करता है जिससे उल्टी, जी मिचलना, भूख न लगना जैसी समस्याएं होती है. लाल रक्त कण टूटने के कारण शरीर में रक्त की कमी हो जाती है. साथ ही लीवर की असामान्यता होने से रक्त में ग्लूकोज की कमी हो जाती है.
उपचार : मलेरिया ऑफ, आर्सेनिक एल्ब, ब्रायोनिया, नैट्रम म्यूर, युपेटोरियन पर्फ, चिनिनम सल्फ, चिनिनम आर्स.
टाइफाइड
बरसात के मौसम में टाइफाइड होना आम होता है. यह ‘साल्मोनेला टाइफी’ नामक जीवाणु के कारण होता है. यह बैक्टीरिया किसी खाद्य पदार्थ या पेयजल के माध्यम से हमारे शरीर में पहुंच जाते हैं. अस्वच्छ वातावरण और गंदगी इसका मुख्य कारण होते हैं. यह जीवाणु मानव की छोटी आंत में मौजूद होता है. जब कोई व्यक्ति खुले में मल त्याग करता है, तब यह बैक्टीरिया पानी में मिल सकते हैं या मक्खियों द्वारा इन्हें खाद्य पदार्थों पर छोड़ा जा सकता है. यह ज्वर का सबसे अधिक प्रभाव आंतों पर पड़ता है, इसलिए इसे आंत्रिक ज्वर भी कहा जाता है.
इस रोग में कुछ विशेष प्रकार की जीवाणु रोगी के आंतों में पनपने लगते हैं और वहां धीरे-धीरे घाव, जलन की स्थिति पैदा करते हैं. संक्रमण के 1-2 सप्ताह के अंदर रोग के लक्षण नजर आने लगते हैं. शरीर में प्रवेश करने के बाद यह बैक्टीरिया अपनी संख्या बढ़ाता है और रक्त में मिलकर बीमारी का कारण बनता है. इस रोग में बुखार के साथ सिर दर्द, चक्कर आना, बदन दर्द, कमजोरी, भूख न लगना, पेट में दर्द, जलन, उल्टी होना, जी मिचलना, घबराहट, बेचैनी, दस्त, कब्ज के लक्षण देखने को मिलते हैं. प्यास एवं जीभ सुखी व पपड़ीदार हो जाती है. कभी-कभी रोगी के मल में खून भी आता है.
संक्रमण के कारण आंतों में व्रण (अल्सर) का निर्माण हो जाता है. रोगी को सूखी खांसी होती है, अधिक प्यास लगती है और रोगी की जीभ की ऊपरी सतह सतह भी शुष्क हो जाती है. ठंड लगने के कारण रोगी के पूरे शरीर में कपकपी होती है. साथ ही बुखार के तापमान में भी अनियमित उतार चढ़ाव होता है.
उपचार : बैप्टेशिया क्यू, फेरम फॉस, आर्सेनिक, इपिकाक, ब्रायोनिया, बायो नं 11.
वायरल बुखार
वर्षा ऋतु में वायरल बुखार होना एक आम समस्या है. मौसम के बदलाव से जब शरीर संतुलन नहीं स्थापित कर पाता तब व्यक्ति अनेकों रोगो से ग्रस्त हो जाता है. मौसम के बदलाव का यही प्रभाव वायरल बुखार के रूप में नजर आता है. यह वायरस से होने वाला सक्रमण है. कमजोर रोग प्रतिरोधक क्षमता होने के कारण व्यक्ति इस रोग के वायरस से संक्रमित हो जाता है. रोग का संक्रमण कुछ डीनो से लेकर कई हफ्तों तक रह सकता है. संक्रमित व्यक्ति के खांसने या छींकने से हवा में फैलने वाले वायरस के संपर्क में जब एसवीएसटीएच व्यक्ति आता है तो वह भी रोग से ग्रस्त हो जाता है. शिशुओं के लिए वायरल बहुत कष्टदायी होता है.
इसके विषाणु सांस के माध्यम से शरीर में पहुंचते है. ठंडा वातावरण इन रोगाणुओं की सक्रिय होने में मदद करता है. वायरल बुखार में रोगी को बहुत ठंड लगती है. सर्दी जुकाम हो जाता है, साथ ही शरीर का तापमान कभी कभी 103 डिग्री से भी ज्यादा हो जाता है. वायरल बुखार के प्रारम्भिक चरण में रोगी की आंखें लाल हो जाती है. रोगी अत्यधिक कमजोरी व थकान महसूस करता है. सर्दी जुकाम होने के कारण उसकी नाक भी बहने लगती है. कुछ मामलों में रोगी के सिर में भी तीव्र दर्द होता है.
उपचार : रसटॉक्स, बेलाडोना, आर्सेनिक, ब्रायोनिया, बैरेथ्रम विरेडी, चिनिनम सल्फ, डल्कामारा.
चर्मरोग
वर्षा ऋतु में वातावरण में नमी के कारण खाज खुजली, रेशेज़्म, दाद व अन्य चर्म रोग होना आम बात होती है. नमी में पनपने वाले बैक्टीरिया, फंगस, पैरासाइट्स आदि जब त्वचा को संक्रमित करते है, तब चर्म रोगों को विकृति होती है. त्वचा पर फंगल इन्फेक्शन होने का मुख्य कारण होता है “टीनिया पेडिस”. टीनिया फंगस के त्वचा के संपर्क में आने पर इसकी संख्या में वृद्धि होने लगती है. इसमें त्वचा पर खुजली, चकत्ते हो जाते है और त्वचा पर लालिमा भी दिखाई पड़ती है.
आमतौर पर यह फंगस गर्म, नमी वाले वातावरण में पनपता है. इसके अतिरिक्त इस मौसम में घुन के अंडों और मल के कारण त्वचा पर एलर्जी होना भी आम होता है. अस्वच्छ, नमी वाले स्थानों पर रहने से चर्म रोग का खतरा अधिक रहता है.
उपचार : रसटॉक्स, आर्सेनिक, फैगोपायरम, डॉलिकोस, एसिड सल्फ, सल्फर गन पाउडर 3 एक्स, बायो नं. 20, बायो 33.
पाचन संबंधी रोग
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पेट दर्द या उदर – शूल
दूषित भोजन, ज्यादा तले मसालेदार पदार्थो का सेवन और अस्वच्छ पानी का सेवन करने से पाचन तंत्र प्रभावित होता है. विषाक्त भोजन के सेवन से जब हमारा पाचन तंत्र संक्रमित होता है, तब रोगी को पेट में दर्द की विकृति होती है.
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अजीर्ण या अपच
अजीर्ण या अपच एक ऐसी बीमारी है जो प्रायः गरिष्ठ भोजन करने, अधिक तली व मसालेदार चीजों का सेवन करने, समय पर न सोने और खराब भोजन का सेवन करने से होती है. इसके कारण रोगी को खाना खाने के बाद बार बार खट्टी डकार आना, गैस बनना, पेट व छाती में जलन, जी मिचलाना, खाना ठीक से न पचना, उल्टी होना आदि की शिकायत रहती है. अपच से पीड़ित को बहुत आलस आता है व वह दिनभर सुस्त रहता है. नशीले पदार्थो का अधिक सेवन करने से भी अपच की समस्या हो सकती है.
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कब्ज
कब्ज एक आम बीमारी है जो किसी को भी हो सकती है. समान्यतः सही रूप से मलत्याग न कर पाने के समस्या को कब्ज कहते है. यह एक ऐसा रोग है जिसके कारण अनेक बीमारियां भी स्वयं उत्पन्न हो सकती है जैसे – पेट में भारी पन, पेट दर्द, गैस बनना, सिरदर्द, मुंह से दुर्गंध आना, अधिक आलस आना, बवासीर, अनिद्रा आदि. इसका मुख्य कारण होता है शारीरिक परिश्रम का अभाव, गरिष्ठ, दूषित व अधिक मसालेदार पदार्थों का सेवन, ज्यादा मात्रा में चाय काफी पीना, जरूरत से अधिक खाना, पानी कम पीना, पौष्टिक तत्वों का सेवन न करना, रात को देर तक जागना इत्यादि.
उपचार : नक्स भूमिका, ब्रायोनिया, एलियम सटाईवम, ऐसाफोटीडा, पोडोफाइलम, सिना, बायो नं. 4.
श्वास संबंधी रोग
बारिश में मौसम में वातावरण में मौजूद धूल के कण जब श्वास के माध्यम से शरीर में प्रविष्ट होते है तब व्यक्ति को अनेकों श्वास संबंधी परेशानियों का सामना करना पड़ता है. इस मौसम में ब्रौंकियल अस्थमा, एलर्जिक राइनाइटिस, खांसी जुकाम, दमा, कफ आदि की उत्पत्ति होती है. श्वासमार्ग में रुकावट होने के कारण रोगी को सांस लेने में मुश्किल होती है. थोड़ा सा श्रम करने पर ही रोगी की सांस फूलने लगती है. इससे उसे छाती मे दर्द व खिंचाव महसूस होता है. ऐसी स्थिति में रोगी को खट्टे व ठंडे पदार्थों के सेवन से परहेज करना चाहिए. सिगरेट, तंबाकू व अन्य नशीले पदार्थों का सेवन न करें.
उपचार : एल्ब सेंटा, इपिकक, आर्सेनिक, लोबेलिया इन, ब्रायोनिया, रसटॉक्स, नैट्रम सल्फ, सेनेगा, बायो नं. 2.
रोगो की रोकथाम के उपाय
- पानी को हमेशा उबालकर ही पिए.
- स्वच्छ व पौष्टिक भोजन का सेवन करें.
- दूषित स्थानों पर मिल रहे भोज्य व पेय पदार्थो को ग्रहण न करें.
- घर व आस पास के क्षेत्र को स्वच्छ रखें. पानी को एकत्रित न होने दें. कीटनाशक का भी छिड़काव कराएं.
- यदि घर के आस पास पानी एकत्रित है तो उसमें घासलेट या पैट्रोल डाल दें. इससे उमेन रोगाणुओं के पैदा होने की संभावना खत्म हो जाएगी.
- घर के खिड़की के बाहर तुलसी का पौधा लगाएं. यह बीमारी फैलाने वाले मच्छरों को पनपने से रोकता है.
- नियमित रूप से योग व व्यायाम करें. रोजाना कुछ देर खुली हवा में घूमने जाएं.
- शरीर को हाइड्रेटेड रखे.
- खाद्य पदार्थों को खुला न छोड़े. इससे उन पर मक्खियाँ बैठ कर संक्रमण फैला सकती है.
- सबसे जरूरी अपने शरीर की व आस पास की स्वच्छता का पूर्ण ध्यान रखें.
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